गरीब की मौत पर तमाशा-- शशिशेखर

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published Published on Jun 24, 2019   modified Modified on Jun 24, 2019
राजनीतिज्ञों का एक बड़ा वर्ग यह कहकर मूंछें ऐंठता आया है कि 2005 से 2015 के बीच भारत ने 27 करोड़ लोगों को गरीबी के अभिशाप से मुक्त किया और देश में गरीबी 50 फीसदी से घटकर 28 प्रतिशत तक आ गई। अगर यह सच है, तो फिर कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक साल-दर-साल इतनी बड़ी संख्या में अकाल मौत के शिकार होने वाले लोग कौन हैं? आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मुफलिसी के शिकार हिन्दुस्तानियों के बीच ‘समझदारों' ने परिभाषाओं की विभाजक दीवारें खड़ी कर दी हैं। यह बात अलग है कि मौत इन विभाजनों को नहीं पहचानती। हमारे इर्द-गिर्द एक ऐसी दुनिया गढ़ दी गई है, जहां सत्य, तथ्य से अधिक कथ्य का मोहताज हो गया है!

मुजफ्फरपुर में ‘चमकी' बुखार (इंसेफलाइटिस) से धड़ाधड़ मरते बच्चों ने एक बार फिर इस कुरूप और कसैले यथार्थ को जगजाहिर कर दिया है। गरीबी उन्मूलन की नारेबाजी से आसमान भेदने की कोशिश करने वाले भूल जाते हैं कि 36 करोड़ भारतीय आज भी स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और सैनिटेशन से वंचित हैं। दुर्भाग्य से हिंदीभाषी, बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश इस मामले में शीर्ष पर हैं। देश के कुल ‘मल्टीडायमेंशनल गरीबों' में आधे से अधिक इन्हीं चार प्रदेशों में बसते हैं। कोई अचरज नहीं कि मच्छर-मक्खी तक इनके लिए यमदूत साबित होते हैं। यही नहीं, पिछले वर्ष आई ‘ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट' के अनुसार, दुनिया के कुल कुपोषित लोगों की 24 फीसदी आबादी भारत में बसर कर रही है। पांच वर्ष से कम उम्र के वैश्विक कुपोषितों का 30 प्रतिशत भारत के नौनिहाल के बीच बसता है। इन बच्चों के लिए 21वीं सदी सपना है या त्रासदी, यह आप ही तय करें।

जब भी मौत चेहरा बदलकर इन लोगों पर झपट्टा मारती है, तो लगता है कि मीडिया और सियासत आसमान सिर पर उठा रहे हैं। पहले मीडिया की बात। हमारा मीडिया हादसों का शगल रखता है और उससे बेहद आक्रामक अंदाज में खेलता है। हर हादसे के साथ उसकी प्राथमिकताएं बदलती रहती हैं। यही वजह है कि हिंदीभाषी राज्यों में न मर्ज का इलाज हो रहा है, न मरीज का। मुजफ्फरपुर इसका नवीनतम उदाहरण है। टेलीविजन के कैमरे और चैनलों के ‘लोगो' लगे माइक हर वक्त नए-नए सत्य उगल रहे हैं। कहीं किसी डॉक्टर की बखिया उधेड़ी जा रही है, तो कहीं किसी नर्स का बयान ब्रह्म वाक्य की तरह दिखाया जा रहा है। यह ठीक है कि मीडिया ने इन गरीब बच्चों की मौत को मुजफ्फरपुर के वीराने से पटना और दिल्ली के सत्ता सदनों तक पहुंचाया, पर यह भी सच है कि अतिरेक ने इस मुद्दे की गंभीरता को तमाशे में तब्दील कर दिया है।
अब राजनीतिज्ञों पर आते हैं।

बिहार में जद-यू और भाजपा की गठबंधन सरकार है। इस गठबंधन के नेताओं को ऐसे विरल वक्त में संजीदगी का परिचय देना चाहिए था, पर ऐसा नहीं किया गया। एक मंत्री ने कह दिया कि यह बीमारी लीची खाने से हुई है, तो दूसरे ने प्रेसवार्ता के दौरान ही भारत-पाक क्रिकेट मैच का स्कोर पूछ लिया। मुजफ्फरपुर के सांसद अजय निषाद ने इसे 4जी, यानी गांव, गंदगी, गरीबी और गरमी की उपज बता दिया। निषाद साहब की नाक के नीचे मरने वाले बच्चों में एक बड़ा हिस्सा मुजफ्फरपुर का भी है। इस जिले में कुल आबादी का 90.14 फीसदी हिस्सा ग्रामीण माना जाता है। 24 फीसदी लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन-यापन करते हैं। ये 2011 की जनगणना के आंकडे़ हैं।

जहां तक गंदगी का सवाल है, तो मुजफ्फरपुर पिछले दिनों 39 पायदान लुढ़ककर 387वें स्थान तक पहुंच गया। 2018 में इस मामले में वह 348वें स्थान पर था। अब गरमी की बात। मई-जून में यहां का पारा 45 डिग्री के आस-पास रहता है। आसमान से अभिशाप की तरह बरस रही गरमी पर भले ही सांसद महोदय का बस न चलता हो, मगर गरीबी और गंदगी को दूर करने की जिम्मेदारी जरूर उन पर आती है। बतंगड़ बनने के बाद अजय निषाद ने सफाई दी कि मेरे बयान का गलत अर्थ लिया गया, पर वह सही तब साबित होंगे, जब वह पिछले पांच साल के कार्यकाल का मतदाताओं को हिसाब दें कि उस दौरान गंदगी और गरीबी उन्मूलन के लिए क्या सार्थक कदम उठाए गए? देश के अन्य भागों की तरह शहरीकरण में कितनी बढ़ोतरी हुई? बिहार के हुक्मरानों को भी एक श्वेतपत्र जारी करना चाहिए कि गरीबी और गंदगी उन्मूलन के लिए उन्होंने क्या किया?

यहां प्रसंगवश बताने में हर्ज नहीं है कि दो वर्ष पूर्व गोरखपुर में भी बच्चों पर अकाल मृत्यु ने झपट्टा मारा था। योगी सरकार ने इससे जूझने में सफलता अर्जित की। पूर्वांचल के ग्रामीण इलाकों को बेहतर चिकित्सा, स्वास्थ्य और सफाई के साधन मुहैया कराए। अब बिहार की बारी है, पर वहां तो सिर्फ सियासत हावी है। मुख्य विपक्षी दल के नेता तेजस्वी यादव लापता हैं। महागठबंधन के अन्य घटक दलों के नेता सिर्फ जुबानी जमा खाते से काम चला रहे हैं। उधर, मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री ने चुप्पी साध रखी है। होना तो यह चाहिए था कि संकट की इस घड़ी में सभी दल सियासी दलदल से अलग हट पीड़ितों की सेवा-शुश्रूषा के लिए साझा अभियान छेड़ देते। अफसोस, इसका उल्टा हो रहा है।

सिर्फ बिहार ही क्यों? भारत के अधिकांश हिस्सों का यही हाल है। गरीबी का अभिशाप एक बडे़ वर्ग को हर रोज जीने से ज्यादा मरने पर विवश करता है। ऐसा न होता, तो साल-दर-साल विकराल मौसम से मरने वालों की संख्या में बढ़ोतरी न हो रही होती। क्या कमाल है कि गरीब को कभी गरमी मारती है, कभी बाढ़, तो कभी बुखार। और तो और, अधिक सर्दी भी उसके लिए जानलेवा साबित होती है। पुरानी कहावत है- गरीब की हर हाल में मौत है। हम कब तक ऐसी त्रासदियों को कहावत में तब्दील कर अपने कर्तव्य से हाथ धोते रहेंगे?



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