मैक्रोस्कैन नामक वेवसाइट पर उपलब्ध अर्थशास्त्री उत्सा पटनायक के आलेख
एग्ररेरियन क्राइसिस एंड डिस्ट्रेस इन रुरल इंडिया(साल २००३) के अनुसार-
http://www.macroscan.org/fet/jun03/fet100603Agrarian%20Cri
sis_1.htm
- साल १९९० के दशक में प्रति व्यक्ति आहार उपलब्धता में लगातार गिरावट आई। यह बात ग्रामीण भारत के लिए भी कही जा सकती है और शहरी भारत के लिए भी। साल २००२-०३ में हालत ये हो गई कि भारत में प्रतिव्यक्ति आहार उपलब्धता उतनी भी नहीं रही जितनी दूसरे विशव युद्ध के सालों में थी जबकि उन सालों में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था।
- साल १९८३ में ग्रामीण भारत में हर व्यक्ति को प्रतिदिन औसतन २३०९ किलो कैलोरी का आहार हासिल था जो साल १९९८ में घटकर २०११ किलो कैलोरी रह गया।
- साल १८९७-१९०२ के बीच देश में हर व्यक्ति पर सालाना १९९ किलोग्राम खाद्यन्न उपलब्ध था जो साल २००२-०३ में घटकर १४१ किलो ५०० ग्राम रह गया। इससे पता चलता है कि खाद्यान्न की उपलब्धता के लिहाज से अंग्रेजो का जमाने में हालत आज के वक्त से कहीं ज्यादा अच्छी थी।
- एक तथ्य ये भी है कि इन सालों में अनाज के सरकारी गोदाम भरे हुए थे जबकि इन्ही सालों में प्रति व्यक्ति अनाज की उपलब्धता में कमी आयी। इससे संकेत मिलते में हैं कि ग्रामीण भारत के लोगों के पास खरीददारी की ताकत कम हुई और इसके फलस्वरुप ना खरीदा हुआ अनाज गोदामों में पड़ा रहा।
- साल १९९० के दशक में मजदूरों-किसानों की खरीददारी की क्षमता में काफी कमी आई-खासकर ग्रामीण भारत में। इससे एक तरफ ग्रामीण भारत में खेतिहर संकट गहराया तो दूसरी तरफ अनाज के सरकारी गोदामों में अनाज सड़ता रहा।
- खेतिहर उत्पाद की बढ़ोत्तरी की दर में ही कमी नहीं आई, बल्कि १९९० के दशक में बढ़ोत्तरी की दर (चाहे हम पूरी कृषि के लिहाज से देखें या फिर अनाज के उत्पादन के लिहाज से) जनसंख्या की बढ़ोत्तरी की दर के मुकाबले पीछे रही जबकि १९८० के दशक में स्थिति उल्टी थी। आजादी के बाद के दशकों में सिर्प १९९० का दशक ही ऐसा रहा जब प्रति व्यक्ति अनाज उत्पादन में कमी आयी।
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